जब हो जेब में पैसा,बेरोजगारी की दर्द,विनोद कुमार,की कविता
जब हो जेब में पैसे तो दोस्त की फोन आती है,
ना हो जब जेब में पैसे कोई ना याद करता है।
घरों मे मां-बाप भी पैसों के आगे ,प्रेम करते है,
ना हो जब जेब में पैसे तो घर से दूर करते हैं।
कभी गाली कभी झगड़ा यही प्रतिदिन का किस्सा है,घरों में पैसे लाकर देने वालों पर अब तो प्रेम बिकता है।
सुबह से शाम तक निकले गलियां गलियां घूमे हम पर इस बेरोजगारी में कहीं ना काम मिल पाया,
मां को ऐसा लगता था की हम करते नहीं है कुछ,
डिग्रियों के अनुसार मैं भी काम चाहता हूं,
दो रोटी मिले प्रेम से इतना कमा लूं,दिन रात चाहता हूं।
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